‘शारीरिक संबंध का अर्थ सिर्फ संभोग नहीं’: दिल्ली हाई कोर्ट का बड़ा फैसला, उम्रकैद से बरी हुआ आरोपित
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम के तहत दायर एक मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक चौंकाने वाला फैसला सुनाया। एक छोटी बच्ची के साथ बलात्कार और यौन शोषण के लिए आजीवन कारावास की सजा काट रहे एक व्यक्ति को अदालत ने दोषमुक्त कर दिया। इस मामले ने यौन अपराधों के बारे में कानूनी व्यवस्था के दृष्टिकोण पर एक नई चर्चा को जन्म दिया है।
क्या था मामला?
मामला तब शुरू हुआ जब पीड़िता की मां ने अपनी 14 वर्षीय बेटी के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराई, जिसमें दावा किया गया कि उसे एक अज्ञात व्यक्ति ने बहला-फुसलाकर अगवा कर लिया है। बाद में पुलिस ने लड़की को ढूंढ निकाला, जिसने गवाही दी कि उसके और आरोपी के बीच “शारीरिक संबंध” थे। ट्रायल दिल्ली हाई कोर्ट का बड़ा फैसला: रेप केस में दोषी ठहराए गए व्यक्ति को किया बरी ने उस व्यक्ति को दोषी पाया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई, जिस फैसले के खिलाफ आरोपी ने हाई कोर्ट में अपील की।
हाई कोर्ट का फैसला
निचली अदालत के दिल्ली हाई कोर्ट फैसले को तब पलट दिया गया जब न्यायमूर्ति प्रतिभा एम. सिंह और अमित शर्मा की खंडपीठ ने प्रतिवादियों को बरी कर दिया। उन्होंने कहा:
पीड़िता द्वारा इस शब्द का इस्तेमाल करने के बावजूद “शारीरिक संबंध” की परिभाषा स्पष्ट नहीं थी।
सबूतों का अभाव: युवक ने यौन उत्पीड़न का अनुभव करने की स्पष्ट रूप से रिपोर्ट नहीं की। इसके अतिरिक्त, एक चिकित्सा मूल्यांकन में ऐसे कोई निशान नहीं पाए गए।
सहमति का मुद्दा: हालाँकि POCSO अधिनियम के तहत नाबालिग की सहमति अप्रासंगिक है, लेकिन यौन अपराध का स्पष्ट सबूत होना ज़रूरी है।
अदालत ने कहा कि “संदेह का लाभ” अभियुक्त पर लागू होना चाहिए। इसने यह भी कहा कि पीड़िता के बयान के आधार पर यौन उत्पीड़न का सीधे तौर पर निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।
न्यायिक टिप्पणी और साक्ष्यों की भूमिका
दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत ने प्रतिवादियों को दोषी ठहराने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं दिया। यह भी स्पष्ट हो गया कि पीड़िता ने अपने बयान में कहा था कि आरोपी ने उसके खिलाफ कोई गैरकानूनी काम नहीं किया या हिंसा का इस्तेमाल नहीं किया। इसके अलावा, मेडिकल रिपोर्ट में यौन उत्पीड़न का कोई सबूत नहीं था। इसके बाद अदालत ने आरोपी को दोषमुक्त कर दिया।
विचार के लिए सवाल
यह मामला कई सवाल खड़े करता है:
- नाबालिगों के मामलों में सहमति की भूमिका: भले ही सहमति को POCSO के तहत मान्यता नहीं मिलती, लेकिन क्या केवल “शारीरिक संबंध” शब्द का उपयोग यौन अपराध को साबित करने के लिए पर्याप्त है?
- यौन अपराधों की परिभाषा का दायरा: क्या हर शारीरिक संपर्क यौन उत्पीड़न या यौन हमले के दायरे में आता है?
- साक्ष्य का महत्व: क्या न्यायपालिका को केवल बयान के आधार पर फैसला देना चाहिए, या ठोस सबूतों की जरूरत है?
ट्रायल कोर्ट की भूमिका पर सवाल
इस मामले ने ट्रायल कोर्ट की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठाए हैं। यह समझना जरूरी है कि एक आरोपित को दोषी ठहराने के लिए पुख्ता सबूत और कानूनी प्रावधानों का सही उपयोग आवश्यक है।
निष्कर्ष
यह फैसला एक मिसाल के रूप में काम करेगा, जहां अदालत ने यह स्पष्ट किया कि केवल अस्पष्ट शब्दों या बयान के आधार पर यौन उत्पीड़न का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। यह भी जरूरी है कि हर मामले में साक्ष्य की सटीकता और गंभीरता पर ध्यान दिया जाए।
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