इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कासगंज में एक नाबालिग लड़की के साथ हुए यौन उत्पीड़न के मामले में आरोपितों को राहत देते हुए एक चौंकाने वाला फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि किसी लड़की के स्तन को दबाना, उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ना और उसे पुलिया के नीचे खींचना, बलात्कार या बलात्कार के प्रयास जैसे गंभीर अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। इस फैसले ने सामाजिक और कानूनी हलकों में बहस छेड़ दी है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 11 वर्षीय एक नाबालिग लड़की से जुड़ा है, जिसके साथ 10 नवंबर 2021 को कासगंज में तीन आरोपितों ने यौन उत्पीड़न करने की कोशिश की थी। आरोपित पवन, आकाश और अशोक ने पीड़िता को पुलिया के पास खींचकर उसके साथ दुर्व्यवहार किया। एक आरोपित ने उसके स्तन दबाए, जबकि दूसरे ने उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ दिया। हालांकि, राहगीरों ने शोर सुनकर हस्तक्षेप किया और आरोपित वहाँ से भाग गए।
इलाहाबाद हाई कोर्ट अदालत का फैसला
इलाहाबाद हाई कोर्ट की पीठ, जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की अगुवाई में, ने इस मामले में आरोपितों को राहत देते हुए कहा कि उनके कृत्य बलात्कार या बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं आते। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि आरोपितों की कार्रवाई अपराध करने की तैयारी से आगे बढ़ चुकी थी।
अदालत ने ट्रायल कोर्ट के समन आदेश को संशोधित करते हुए निचली अदालत को निर्देश दिया कि वह आरोपितों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 (बलात्कार) के बजाय धारा 354-बी (निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला) और पॉक्सो अधिनियम की धारा 9/10 (गंभीर यौन हमला) के तहत नया आदेश जारी करे।
अदालत की टिप्पणी
अदालत ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि बलात्कार के प्रयास और अपराध की तैयारी के बीच अंतर को सही तरीके से समझना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि आरोपितों के कृत्य, हालांकि गंभीर हैं, लेकिन वे बलात्कार के प्रयास की परिभाषा में फिट नहीं होते।
सामाजिक प्रतिक्रिया
इस फैसले ने सामाजिक और कानूनी हलकों में बहस छेड़ दी है। कई लोगों का मानना है कि अदालत का यह फैसला नाबालिगों के साथ यौन उत्पीड़न के मामलों में सख्ती की कमी को दर्शाता है। वहीं, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि अदालत ने कानूनी प्रक्रिया और सबूतों के आधार पर ही यह फैसला सुनाया है।
निष्कर्ष
इलाहाबाद हाई कोर्ट का यह फैसला नाबालिगों के साथ यौन उत्पीड़न के मामलों में कानूनी प्रक्रिया और अपराध की परिभाषा को लेकर नई बहस छेड़ता है। हालांकि, यह मामला समाज और कानून के बीच के अंतर को भी उजागर करता है। अब यह देखना होगा कि निचली अदालत इस मामले में क्या फैसला सुनाती है और क्या पीड़िता को न्याय मिल पाता है।